Old Age Home | वृद्धाश्रम

God is known as an immortal figure-omnipresent, omnipotent, omniscient. Well wisher and caretaker of one & all, living or non-living. No one can vouch to have seen with naked eyes the God! Yet, for a child, his mother in particular & parents in general are God incarnate! will be the answer. Hence parents, are supposed to be our Gods on earth! Then why are we sending our ‘Gods’ to the old age home? Why the numbers of old age home are increasing with every passing year? A report…

ईश्वर के रूप होते हैं माँ-बाप

“खुद तो आधा पेट खाया बाकी को भरपेट खिलाया औरों के त्योहार मनवाए, जूते-कपड़े ड्रेस मंगाए लोन लेकर फीस चुकाए, जिद की तो साइकिल भी लाए एड़ी घिसकर, चुप रह-रह कर, रहे काटते वक्त हमेशा कभी तो होगी सुबह सोचकर, मुस्कुराते रहे हमेशा कष्ट में भरी थीं आंखें पर, आंसू नहीं उम्मीदें थीं छलकी तो देखा हमने बिखरी थीं उम्मीदें ही जो घर था, अब मकान बन गया छत बदल गये, नया आसमान बन गया रिश्ता टूटा, छूटा..फिर पीकदान बन गया..पीकदान बन गया…”

हमारे समाज और देश में बुज़ुर्गों की हालत देख कर दिल पसीज जाता है। आज न सिर्फ घरों की दीवारें दरकने लगी हैं बल्कि रिश्तों की बुनियाद भी बेहद कमज़ोर पड़ने लगी है। सबसे ज़्यादा आश्चर्य और दुख तो तब होता है जब एक संतान अपने ही बूढे मां-बाप को वृद्धाश्रम छोड़ आता है या फिर उन्हें वृद्धाश्रम का रुख करने को मज़बूर कर देता है।

एक सभ्य और संवेदनशील व्यक्ति तो समाज के इस स्याह सच को देखकर टूट जाएगा। जो मां-बाप तिनका-तिनका जोड़ कर अपना आशियाना बनाता है, अपनी सुख-सुविधाओं को भी कई बार त्याग देता है सिर्फ इसलिए कि वो अपने बच्चों की हर इच्छा पूरी कर सके, वही बच्चे बड़े होकर अपने बुज़ुर्ग माता-पिता को बोझ समझने लगते हैं और उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं। वहीं दूसरी तरफ कई बुज़ुर्ग माता-पिता ऐसे भी हैं जो बुढापा आते ही अपने बहू-बेटे की ज़्यादती या दुर्व्यवहार की वजह से अपने ही बनाए घर के किसी कोने में ‘बेकार पड़े सामान’ की तरह रहने को मज़बूर होते हैं।

समाज के सब लोग ऐसे नहीं हैं लेकिन ऐसे लोगों की संख्या कम है, ऐसी भी बात नहीं है। तभी तो हर साल देश में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़ती जा रही है। पूछने पर ऐसी संताने कहती हैं कि आखिर उन्होंने ( उनके माता-पिता ने) नया क्या किया? सब के मां-बाप अपने बच्चों के लिए अपना फर्ज निभाते हैं……। आखिर माता-पिता भी तो उम्मीद करते हैं, उनकी संतान उनके बुढापे की लाठी बने, उनका सहारा बने। लेकिन भौतिकतावादी और स्वार्थी होते लोगों की इस दुनिया में भला अब ऐसा कहां होता है। बूढे मां-बाप को बोझ समझना, उन्हें घर के किसी कोने में ‘बेकार पड़े सामान’ की तरह पड़े रहने को विवश करना या फिर उन्हें वृद्धाश्रम जाकर छोड़ आना, अब तेज़ी से हो रहे पारिवारिक विघटन की पराकाष्ठा का क्रूर और हृदयघाती उदाहारण है।

दिल्ली, मुंबई, कोलाकाता, बैंगलुरु सरीखे महानगरों में तो समाज को शर्मसार करने वाली ऐसी संतानों की संख्या तो दिन प्रति दिन बढती जा रही है। जो अपने मां-बाप को बुढापे में घर से बेघर कर वृद्धाश्रमों में धकेल रहे हैं। शायद यही वजह है कि पिछले कुछ वर्षों में महानगरों में रैन बसेरों से ज्यादा वृद्धाश्रमों की संख्या में बढोत्तरी हुई है। अकेले दिल्ली राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र( एनसीआर) की बात करें तो यहां सैकड़ों नहीं हज़ारों में ऐसे लोग हैं जो बुढापे की दहलीज पर आते-आते अपने बेटे-बहू की ज़्यादती की वजह से मौत के मुहाने पर खड़े हैं। पथराई आंखें, कांपते हाथ, कमज़ोर हो गई हड्डियां, शरीर में बीमारियों की गठरी छुपाए, दिल में बेइंतहां दर्द लिए वृद्धाश्रम में रह रहे ये बुज़ुर्ग कभी सीढियों पर तो कभी दरवाजे पर किसी अपने का इंतज़ार करते दिख जाएंगे।

बच्चों के दिए तकलीफ,टीस और ग़म के बावजूद ये मां-बाप कभी अपनी संतानों के लिए बुरा एक शब्द तक नहीं निकालते अपनी जुबां से। इन्हीं बुजुर्गों में कोई रविंदर आहूजा हैं, कोई सुभाष चंद्र, प्रवीण कुमार तो कोई कृष्णा आहूजा जिनको खुद उनके जने हुए बच्चों ने बुढापे की दहलीज पर वृद्धाश्रम की ओर धक्का दे कर घर से बेदखल कर दिया। किसी की चार संतानें हैं, किसी के तीन तो किसी के दो। किसी को उनके बेटे-बहू ने घर से सिर्फ सलिए बाहर का रास्ता दिखा दिया क्यों कि उसकी खांसी की आवाज़ से बहू परेशान हो उठती थी। घर-संपत्ति हड़पने के बाद किसी को बेटी-दामाद ने उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ दिया। तो कुछ ऐसे भी हैं जिनको उनके बच्चों ने धोखे से घर से बाहर निकाल दिया क्यों कि वो गंभीर बीमारियों से जूझ रहे थे। लेकिन अपने बुज़ुर्ग माता-पिता के साथ ऐसा करने वाले को भी ये समझ जाना चाहिए कि हम जैसा करेंगे वैसा ही एक दिन उनके साथ भी होगा क्यों कि उनके बच्चे भी ये सब देख और सीख रहे हैं।

प्रकृति का नियम भी कमाल का है-‘जस करनी तस भरनी।’ वृद्धाश्रमों में रहनेवाले हर बुज़ुर्ग की अपनी दुखभरी दास्तां है। जिसे महज एक स्टोरी के ज़रिए नहीं दिखाया जा सकता लेकिन सात मिनट की इस स्टोरी के ज़रिए आप वृद्धाश्रमों में रहने वाले हर बुज़ुर्ग के दर्द को बखूबी महसूस कर पाएंगे और ये समझ भी पाएंगे कि आखिर क्यों बढ़ रहे हैं वृद्धाश्रमों की संख्या। अभी भी वक्त है हमसबों को सम्हलने का। जरुरत है सोचने, समझने और आत्ममंथन करने की कि वृद्धाश्रम क्यों? वृद्धाश्रम क्यों!

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